Sunday, 26 April 2015

“परमार्थ"

हम सदैव इस भ्रम मे रहते है कि हमने किसी की सहायता करके बहुत पुनित पावन कर्म किया है और इससे हमारे पापों का बोझ किंचित  मात्र कम हो जाएगा |लेकिन वास्तविक्ता यह है कि जब तक हम अपने स्वार्थ का परित्याग नही करेंगे तब तक  हमारे द्वारा किया गया परमार्थ सिद्ध नही होगा|
हमारा स्वार्थ हमपर हावी होकर हमसे कई तरह के कृत्य कराता है ,कुछ सत्कर्म की श्रेणी में आते हैं, कुछ दुष्कर्म की !
हमारी नज़र में हमारे द्वारा किया गया कार्य उचित ही होता है , किंतु नज़रिया बदल कर देखिए नजारें स्वयं ही बदल जाएँगे|
 अपने लिये तो सभी जीते है औरों के लिये जीकर देखो वह आनंद  प्राप्त होगा कि जिसका
 स्वाद आपकी जिह्वा से कभी जाएगा| परमार्थ का  रसास्वादन करने के पश्चात  स्वार्थ आपको कड़वी निम्बोली के समान प्रतीत होगा |
    परमार्थ वह दवा है जो प्रत्येक रोग का उपचार करने मे सक्षम है| कहा भी गया है – “परहित सरिस धर्म नहीं भाई" ,अर्थात् दूसरों की भलाई से बड़ा कोई धर्म नही ! हम सक्षम है, समर्थ है, असीम कोष है हमारे पास तो यदि हम उसका छोटा सा हिस्सा नि:शक्त जनों के हित मे दें तो हमारा कोष कभी खत्म नही होगा अपितु दिनों दिन बढ़ता ही जाएगा|
    साँई इतना दीजिये जामे कुटुंब समाए |
     मैं भी भूखा रहूँ  साधु भूखा जाए ||
  अर्थात्  आगम उतना ही होना चाहिये जितने मे आवश्यक्ताओं की पूर्ति हो जाए,
और नि:शक्त जनों के हित में योगदान भी दिया जा सके |

नफरतें  भर  गई  आहों में,
लाठियाँ  चलती है  राहों में,
मैं  मैं    रहा  तू  तू    रहा |
यह  राज्य  नहीं  अब  तेरा  है,
यह  सारा  इलाका  मेरा  है |
तू  मुस्लिम है  या  हिन्दु  है,
माथे  पर  तेरे  बिन्दु  है |
चलते  है  हम  अंगारों  पर,
राहों  में बनी  कतारों  पर |
भेड़  नहीं  हमें  बनना  है,
काँटों  पर  इसको  चलना  है |
महफूज़  नहीं  यहाँ  नारी  है,
अब  चारों  ओर  कटारी  है |
मानव में दानव  शामिल है,
गैरों  की गए  पनाहों में,
नफरतें भर गई आहों में ,
लाठियाँ  चलती है राहों में,
मैं मैं रहा तू तू रहा..||

By: Mrs. Vandana Chaudhary

No comments:

Post a Comment