हम सदैव इस भ्रम मे रहते है कि हमने किसी की सहायता करके बहुत पुनित व पावन कर्म किया है और इससे हमारे पापों का बोझ किंचित मात्र कम हो जाएगा |लेकिन वास्तविक्ता यह है कि जब तक हम अपने स्वार्थ का परित्याग नही करेंगे तब तक हमारे द्वारा किया गया परमार्थ
सिद्ध नही होगा|
हमारा स्वार्थ हमपर हावी होकर हमसे कई तरह के कृत्य कराता है ,कुछ सत्कर्म की श्रेणी में आते हैं, कुछ दुष्कर्म की !
हमारी नज़र में हमारे द्वारा किया गया कार्य उचित ही होता है , किंतु नज़रिया बदल कर देखिए नजारें स्वयं ही बदल जाएँगे|
अपने लिये तो सभी जीते है औरों के लिये जीकर देखो वह आनंद प्राप्त होगा कि जिसका
स्वाद आपकी जिह्वा से कभी न जाएगा| परमार्थ
का रसास्वादन करने के पश्चात स्वार्थ आपको कड़वी निम्बोली के समान प्रतीत होगा |
परमार्थ
वह दवा है जो प्रत्येक रोग का उपचार करने मे सक्षम है| कहा भी गया है – “परहित सरिस धर्म नहीं भाई" ,अर्थात् दूसरों की भलाई से बड़ा कोई धर्म नही ! हम सक्षम है, समर्थ है, असीम कोष है हमारे पास तो यदि हम उसका छोटा सा हिस्सा नि:शक्त जनों के हित मे दें तो हमारा कोष कभी खत्म नही होगा अपितु दिनों दिन बढ़ता ही जाएगा|
साँई इतना दीजिये जामे कुटुंब समाए |
मैं भी भूखा न रहूँ साधु न भूखा जाए ||
अर्थात् आगम उतना ही होना चाहिये जितने मे आवश्यक्ताओं की पूर्ति हो जाए,
और नि:शक्त जनों के हित में योगदान भी दिया जा सके |
नफरतें भर गई
आहों में,
लाठियाँ चलती है राहों में,
मैं मैं न
रहा तू तू
न रहा |
यह राज्य नहीं
अब तेरा है,
यह सारा इलाका
मेरा है |
तू मुस्लिम है या
हिन्दु है,
माथे पर तेरे
बिन्दु है |
चलते है हम
अंगारों पर,
राहों में बनी कतारों पर |
भेड़ नहीं हमें
बनना है,
काँटों पर इसको
चलना है |
महफूज़ नहीं यहाँ
नारी है,
अब चारों ओर
कटारी है |
मानव में दानव शामिल है,
गैरों की गए पनाहों में,
नफरतें भर गई आहों में ,
लाठियाँ चलती है राहों में,
मैं मैं न रहा तू तू न रहा..||
By: Mrs. Vandana Chaudhary