Saturday, 7 May 2016

व्यक्तित्व एवं ज़रुरतें

ज़रुरत एक ऐसा शब्द है जो हर किसी के जीवन में होता है।
किसी के लिए जरुरत कुछ भी नहीं और किसी के लिए सब कुछ है ये।
कभी कभी सोचता हूँ कहा से आती है इतनी ज़रुरत और कहां तक मैं इनको पूरा करू। 
एक भूके को ज़रुरत है भोजन की,
एक प्यासे को ज़रुरत है पानी की,
एक बच्चे को ज़रुरत है खिलोने की,
एक अनाथ को ज़रुरत है सहारे की,
ऐसी कई परिस्थितियाँ है जहाँ हर किसी को किसी न किसी वस्तु या सहयोग की ज़रुरत है।
हर किसी की ज़रुरतें भिन्न है।

परन्तु आज के युग में एक ज़रुरत सभी की समान है और वो है संस्कार की जरुरत। जिस गति से हम आज अपने समाज में आगे बढ़ते जा रहे हैं उसी गति से अपने संस्कार पीछे छोड़ते जा रहे हैं। परन्तु न जाने क्यों आज हमारे पास इतना समय ही नहीं है की हम अपनी ये महत्पूर्ण ज़रुरत को पूर्ण कर सके। क्या हमारी कामयाबी हमारे संस्कारो से ज्यादा महत्पूर्ण हो गई है ? क्या हमारा जन्म केवल अपने कार्य सिद्द करने के लिये हुआ है? 
कुछ कवर्त्तव्य हमारे समाज और संस्कृति के प्रति भी है।



आज भी हमारा समाज उस दौर से गुजर रहा है जहाँ एक ओर संस्कार और परोपकार की कहानी सुनाई जाती है। वहीँ  दूसरी ओर एक पुत्र अपने माता - पिता को बृद्ध आश्रम में भेज देता है और एक मासूम बच्चा अपने भोजन के लिये चौराहे पर खिलोने बेचता है। हम सम्पूर्ण समाज को नहीं बदल सकते परन्तु स्वम को बदल सकते है।
तो क्यों न एक शुरुआत करें स्वयम  से बदलने की 
हम अपनी ज़रुरत तो पूरी कर ही लेते है। क्यों न ज़रुरत उनकी पूरी करे जिनको वास्तविक जरुरत है।

ज़रुरत है एक परिवर्तन  लाने की 
ज़रुरत है सोच में परिवर्तन लाने की 
ज़रुरत है भेदभाव समाप्त  करने  की 

चलो आज हम अपने अंदर एक विस्वास जगाते  है,
जिन्हे है जरुरत खुशियों की उनके जीवन में खुशियों के दीप जलाते है। कुछ उनके दुःख कुछ अपनी खुशी चलो मिलकर एक नई खुशी बनाते है। चलो आज हम अपने अंदर एक विश्वास जगाते  है। सबके अंदर एक नई ख़ुशी फेहलाते है !!

     

देवेंद्र पांडेय