होली
ऋतुओं के नट वसंत के द्वारे एक डोली आई।
रंगीन सौंदर्य से आछादित ,खूब संवरकर होली आई।
है विश्वास हमारा,प्रेम,एकता,भाईचारे,हमजोली में।
क्योंकि भारत में जीवन पलता है,त्यौहारों की झोली में।
हर्ष और उल्लास घोल घोलकर,त्यौहारों की मिठास बनें।
जीवन के थपेडों में ठिठुरते मनुज का त्यौहार ही लिबास बनें।
इतिहास जुबानी कहता हूँ,पहली होली श्री कृष्ण ने खेली थी।
कहते हैं,प्रभु के प्रेमरस की फुँहार बरसाने तक फेली थी।
मोहन का आलिंगन पाकर ,राधा उसमे सिमट गई।
राधा की कोरी चुनरी भी विविध रंगों से पट गई।
अपने शुरुआत की एक कथा,होली ने और समेटी है।
प्रहलाद होलिका बुआ की गोद में लेटा,बुआ आग में बैठी है।
अज्वलनशील मान,अहंकारवश उसकी बुद्धि सिमट गई।
चमत्कार!बालक को छोड, अग्नि लपटें होलिका से लिपट गई।
बस तब से होलिका दहन,उत्सव स्वरुप मनाया जाता है।
परस्पर रंग लगाकर सबको समरुप बनाया जाता है।
हर्ष का विस्फोट सा , मन के अंदर लगता है।
नीला,पीला,हरा,गुलाबी,हर मुखडा सुंदर लगता है।
रंगो से ही लुभावना है जग,आज ये साबित होता है।
रंगो के गुबार में खोकर,हृदय उन्मादित होता है।
कोई शिकार न पाकर 'तकलीफें' आज हताश हुई।
सबके प्रफ्फुलित हृदय देखकर,निराशा स्वयं निराश हुई।
निश्चिंतता के नीरज ने ढका,आज चिंताओं के दलदल को।
नीर नही रंग बरसेगा,यदि आज निचोडो बादल को।
बैरी मित्र बनें इस जश्न में,रंगों ने बाजी मारी है।
इस जश्न का हिस्सा सब हैं,क्या नर और क्या नारी है।
पर इस उत्सव की भीड में मर्यादा ना खोने पाये।
बस ध्यान रहे,नारी की लाज न लज्जित होने पाये।
- संदीप कुमरावत
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